25-04-2019 (Important News Clippings)
25-04-2019 (Important News
Clippings)
खाते में खाद सब्सिडी
संपादकीय
उर्वरक सब्सिडी की राशि सीधे किसानों के खाते में डालने के लिए एक व्यवस्था बनाने के इरादे से वित्त मंत्रालय और नीति आयोग की साझा पहल एक स्वागत-योग्य कदम है जिससे कई उद्देश्य हासिल किए जा सकते हैं। लेकिन दूसरी तरह की सब्सिडी के प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) की तुलना में यह अधिक जटिल है। दरअसल उर्वरक की किस्में हर किसान और फसल के लिए एक जैसी नहीं होती हैं और इनके बारे में अलग से कोई आंकड़ा भी उपलब्ध नहीं है, लिहाजा हरेक किसान को दी जाने वाली सब्सिडी तय कर पाना मुश्किल है। ऐसी मीडिया रिपोर्ट आई हैं कि वित्त मंत्रालय शायद पीएम-किसान आय समर्थन योजना के लिए तैयार आंकड़ों का इस्तेमाल करने की सोच रहा है। अगर वाकई में ऐसा है तो फिर उसे दोबारा सोचना चाहिए। उर्वरक डीबीटी के लिए ये आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि पीएम-किसान योजना में केवल छोटे एवं सीमांत भू-स्वामियों को शामिल किया गया है और बंटाई एवं पट्टे पर खेती करने वालों को उसमें जगह नहीं मिली है। सबसे बड़ी पहेली यह है कि इसमें खेती नहीं करने वाले अनुपस्थित भूस्वामियों को भी लाभ देने का प्रावधान है।
हालांकि मंत्रालय के पास नई व्यवस्था का खाका तैयार करने के लिए कुछ वक्त है। असल में, आम चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार ही इस नई व्यवस्था को स्वीकृति दे सकती है और उसे लागू कर सकती है। अहम मुद्दा यह है कि भूमि-स्वामित्व से इतर वास्तव में खेती करने वाले किसानों की पहचान की जाए और उर्वरक क्षेत्र के सभी हितधारकों को स्वीकार्य एक गैर-विभेदकारी डीबीटी प्रणाली बनाई जाए। वर्तमान समय में किसानों को उर्वरक घटी हुई दरों पर बेचा जाता है और उनके वास्तविक मूल्य पर दी गई सब्सिडी की राशि उर्वरक कंपनियों के खाते में जमा कर दी जाती है। इसकी शिनाख्त के लिए खाद के सभी खुदरा बिक्री केंद्रों पर खास उपकरण लगाए हुए हैं। लाभार्थी किसानों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए आधार कार्ड का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि यह व्यवस्था राज्य प्रशासन और अन्य मध्यवर्तियों को बाइपास भी करती है। भले ही इसे डीबीटी की तरह मान्यता दी जाती है लेकिन उसके साथ कई अड़चनें भी जुड़ी हुई हैं। उर्वरक उद्योग को सब्सिडी भुगतान में होने वाली देरी और सब्सिडी वाली खाद को फिर से रसायन उद्योग और तस्करी के जरिये पड़ोसी देशों में भेजने जैसी समस्याएं भी रही हैं।
सीधे किसानों के बैंक खातों में उर्वरक सब्सिडी जमा करना कई मायनों में बेहतर विकल्प है। सब्सिडी वाली खाद के गैर-कृषि कार्यों में इस्तेमाल रोकने के अलावा डीबीटी यूरिया का अतिशय इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगाएगा जिससे पौधों को अधिक पोषक-तत्त्व देने वाले संतुलित उर्वरक संरचना को प्रोत्साहन मिलेगा। अधिक यूरिया से मिट्टी की उर्वरता कम होने के अलावा पर्यावरण एवं भूजल दूषित भी होता है। इसके अलावा बाजार दर पर उर्वरकों की बिक्री होने से इस उद्योग में प्रतिस्पद्र्धा को भी बढ़ावा मिलेगा। इससे उर्वरक उत्पादक किसानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी क्षमता बढ़ाने, लागत में कटौती और नवाचारी उत्पाद लाने के लिए प्रोत्साहित होंगे। हालांकि सब्सिडी हटाने का उलटा असर यह हो सकता है कि नकदी की कमी से परेशान छोटे एवं सीमांत किसानों की पहुंच से खाद दूर हो जाए। एक और समस्या यह है कि उर्वरक सब्सिडी के मद में भेजी गई राशि का इस्तेमाल किसान कहीं और कर ले। इस तरह उर्वरक डीबीटी की नई व्यवस्था सक्षम, संतुलित एवं फसलों की जरूरत पर आधारित उपयोग को बढ़ावा देने पर ध्यान देने वाली हो और उसमें भू-स्वामियों के अलावा पट्टे एवं बंटाई पर खेती करने वाले सभी तरह के किसानों के हितों को ध्यान में रखे। ऐसा नहीं होने पर उर्वरक डीबीटी का असली मकसद ही धराशायी हो जाएगा।
Date:25-04-19
चीनी पैंतरे को पस्त करता भारत
चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बीआरआई का विरोध करने के साथ भारत इससे जुड़े मुद्दों पर वैश्विक विमर्श को दिशा दे रहा है।
हर्ष वी. पंत , (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)
भारत ने जब भी चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोट इनिशिएटिव यानी बीआरआई पर कोई रुख अख्तियार किया है, तो ऐसा करके उसने उसे और साथ ही दुनिया को कई संदेश देने का काम किया है। चीन एक बार फिर बीआरआई से जुड़ा आधिकारिक आयोजन करने जा रहा है। इसमें शामिल होने के लिए उसने भारत को भी निमंत्रण दिया था। पहले की तरह इस बार भी भारत ने इस न्यौते को ठुकरा दिया। इससे पहले भी भारत ने चीन के इस आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था। नई दिल्ली ने मई 2017 में प्रथम बेल्ट एंड रोड फोरम (बीआरएफ) सम्मेलन का भी बहिष्कार किया था, जिसमें 129 देशों और कई राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया था। भले ही अमेरिका, रूस, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने उसमें भाग लिया हो, लेकिन भारत इसे लेकर अपने रुख पर मजबूती से टिका हुआ है। वह इस चीनी पहल पर अपनी आपत्तियों को जाहिर करता रहा है।
बीआरआई के माध्यम से खुद को वैश्विक शक्ति के तौर पर पेश करने की चीनी आकांक्षाओं के लिए भारत का यह रुख एक बड़ा झटका था। भारत के इनकार के बाद से चीन को ऐसे कई झटके लगे हैं जिन्होंने उसके लिए समस्याएं कई गुना बढ़ा दी हैं। चूंकि भारत ने एक बार फिर अपना विरोध जताया है तो बीजिंग भी इस पर अपने पत्ते फेंटेगा। इसके संकेत भी मिल गए हैं। चीनी सरकार के मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स ने इसका उल्लेख कुछ इस तरह किया है, ‘अगर भारत बीआरआई के तहत सहयोग से मुंह फेरता है या फिर कुछ परियोजनाओं में हस्तक्षेप करता है तो वह कई बड़ी विकास परियोजनाओं से जुड़ने का अवसर खो बैठेगा। साथ ही कई दक्षिण एशियाई देशों के साथ बेहतर जुड़ाव की उसकी योजनाओं को भी नुकसान होगा।
नई दिल्ली का हालिया निर्णय चीन के उस रुख के बाद सामने आया है, जिसमें चीन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कराने की भारत की कोशिशों को लगातार झटका देता आया है। पिछले दिनों पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद भी चीन का रुख इस मसले पर बदला नहीं। अगर वुहान वार्ता को छोड़ दिया जाए तो भारत-चीन रिश्तों के मोर्चे पर कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। कुछ हालिया रपटों में यह सामने आया है कि डोकलाम पठार पर चीन अपनी स्थिति लगातार मजबूत बना रहा है। यह सरहद पर चुनौती को दर्शाता है।
जो भी हो, भारत की संप्रभुता का मूल प्रश्न बीआरआई को लगातार परेशान करता रहेगा। जैसा कि चीन में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री ने दोहराया, ‘कोई भी देश ऐसी परियोजना से नहीं जुड़ सकता जो संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर उसकी मुख्य चिंताओं की अनदेखी करती हो।
हालांकि बीआरआई को लेकर बाकी दुनिया को लुभाने की चीन की मुहिम लगातार जारी है, लेकिन भारत अपने रवैये पर अडिग है और उसे अडिग रहना भी चाहिए। बीआरआई संबंधी इस कार्यक्रम में करीब सौ से अधिक देश हिस्सा लेंगे। इस आयोजन में लगभग 40 देशों के राष्ट्रप्रमुखों के भी शामिल होने की उम्मीद है। पश्चिमी देशों में बीआरआई को लेकर कुछ संशय और संदेह के बावजूद अभी हाल में इटली इस परियोजना के साथ जुड़ा है। चीन ने दुनिया को यह समझाने में कामयाबी हासिल की है कि आर्थिक भूमंडलीकरण के अगले चरण के लिए बुनियादी ढांचा विकास और कनेक्टिविटी की तत्काल सख्त जरूरत है। अन्य प्रमुख शक्तियों को भी इस बात के लिए बाध्य किया गया है कि अपनी इन्फ्रास्ट्रक्चर और कनेक्टिविटी योजनाओं के लिए वे चीन की शरण में आएं। दुनिया भर में इस मोर्चे पर बहुत बड़ी मांग पैदा हो गई है और चीन इस मांग को पूरा करने की कोशिश में समर्थ दिखने वाले प्रमुख देश के रूप में उभरा है।
बहरहाल, इस राह में आने वाली बाधाओं से पार पाने में बीजिंग को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। उसमें उसका रवैया और छवि भी आड़े आ रही है। भारत अपनी संप्रभुता के आधार पर चीन की बीआरआई परियोजना का विरोध तो कर ही रहा है, इसके साथ ही वह परियोजना को लेकर वित्तीय और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे भी उठा रहा है। ये मुद्दे भी महत्वपूर्ण हैं। कई ऐसे देश, जो शुरुआत में बड़े उत्साह के साथ बीआरआई परियोजना के साथ जुड़े, उनमें से कुछ का रुख-रवैया अब बदला हुआ है और वे भारत के सुर में सुर मिला रहे हैं।
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने हाल में चीन की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर कर्ज के जाल में फंसने की आशंका जताई। मालदीव और श्रीलंका से लेकर मलेशिया और थाईलैंड तक तमाम देशों में चीन की कई परियोजनाओं के भविष्य को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि चीन की आर्थिक उद्दंडता पर पश्चिमी जगत भी सख्ती कर ही रहा है। जर्मन उद्योग परिसंघ ने हाल में यूरोपीय संघ से कहा है कि चीन के साथ वह सख्त शर्तों पर समझौता करे जो बाजार में उत्पादों की डंपिंग, अनिवार्य तकनीक हस्तांतरण और वित्तीय सहारा देने में असमानता जैसे संदिग्ध तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है। बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी को लेकर भारत ने कई तरह से वैश्विक विमर्श को दिशा दी है। इसमें चीनी बीआरआई के शोषणकारी स्वरूप को भी उकेरा है। अपनी संप्रभुता के मुद्दे पर बीआरआई के विरोध से परे भी भारत इस मुद्दे पर सकारात्मक विमर्श पेश करने में सफल रहा है। इस कवायद में भारत को खुद अपनी क्षमताओं से साक्षात्कार करना पड़ा है कि वह स्वयं कैसे क्षेत्रीय कनेक्टिविटी जैसे मोर्चे पर योगदान दे सकता है। अन्य देशों के साथ साझेदारी को लेकर मौलिक चिंतन के साथ ही उसे स्वयं अपना प्रदर्शन सुधारने पर मजबूर होना पड़ा है। बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी को लेकर भारतीय दृष्टिकोण में नए किस्म की वह गंभीरता देखने को मिली, जिसका पहले अभाव नजर आता था। बीआरआई के विरोध के साथ ही भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की संयुक्त परियोजनाओं से भी समान दूरी बनाकर इस मोर्चे पर संतुलन बिठाया है। इसके बजाय भारत द्विपक्षीय साझेदारियों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहा है। इसके लिए दक्षिण एशिया में वह जापान के साथ काम कर रहा है। भारत एशिया अफ्रीका ग्र्रोथ कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं वाले मॉडल को तरजीह दे रहा है।
बीआरआई को लेकर शुरुआती विरोध के बावजूद भारत इससे जुड़े मुद्दों पर वैश्विक विमर्श को दिशा दे रहा है। भविष्य में यह भारतीय नीति-नियंताओं पर निर्भर करेगा कि वे चीनी परियोजनाओं पर उठते संदेह के बादलों के चलते बनने वाले अवसरों को किस तरह भुनाते हैं, ताकि भारत क्षेत्रीय कनेक्टिविटी की सुविधा उपलब्ध कराने वाले बड़े खिलाड़ी के रूप में उभर सके।
Date:25-04-19
ईरान के खिलाफ अमेरिका के कड़े रवैये से उपजी चुनौती
संपादकीय
अमेरिका ने ईरान पर परमाणु व बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम बंद करने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उसका मुआयना करने देने के लिए आर्थिक प्रतिबंधों का दबाव बना रखा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनने के बाद छह देशों के सहयोग से ईरान के साथ हुआ परमाणु समझौता रद्द कर दिया था। पिछले नवंबर में उसने भारत और चीन सहित अपने छह मित्र देशों को ईरान से तेल आयात करने की छह माह की रियायत दी थी। मई की शुरुआत में वह मियाद खत्म हो रही है। इस बार अमेरिका कोई रियायत देने के मूड में नहीं है, क्योंकि अब वह ईरान में आर्थिक व राजनीतिक विरोधाभास खड़े करके किसी समझौते पर पहुंचने की बजाय उसे आर्थिक रूप से मजबूर बनाकर सत्ता बदलने का इरादा रखता है। इसने भारत के सामने आर्थिक चुनौती पेश कर दी है। देश आवश्यकता का 80 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। इसमें से 10 फीसदी कच्चे तेल के लिए वह ईरान पर निर्भर है। इस कमी की पूर्ति के लिए उसे अमेरिका से मदद देने को कहना होगा और हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात व सऊदी अरब से संबंधों में आई गर्मजोशी का फायदा उठाना होगा। हालांकि, खाड़ी के देशों व अमेरिका ने उत्पादन बढ़ा दिया है पर ईरानी तेल के अभाव में तेल मूल्यों में वृद्धि से इनकार नहीं किया जा सकता।
यदि 1 डॉलर की वृद्धि भी होती है तो भारत पर करीब 11 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार बढ़ जाता है। इससे देश के चालू खाते पर दबाव बढ़ जाएगा। तेल के अलावा ईरान में भारत के अन्य भी हित हैं। वह ईरान में चाबहार बंदरगाह विकसित कर रहा है, जिससे वह अफगानिस्तान के अलावा मध्यपूर्व से अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है। अमेरिका ने अभी इसे मानवीय आधार पर मान्यता दी है पर उसका इरादा कब बदलेगा, कह नहीं सकते। भारत के लिए ईरान के साथ खड़े होकर अमेरिका व खाड़ी के देशों के विरुद्ध जाना संभव नहीं है। सारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार अमेरिकी बैंक चैनलों के जरिये डॉलर से होता है। जो देश अमेरिकी प्रतिबंधों को नहीं मानेगा, वह इन चैनलों का इस्तेमाल नहीं कर सकता। इससे भारत की आर्थिक मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। चीन सहित अन्य देशों के सामने भी यह चुनौती है। इस तरह भारत को ईरान और अमेरिका दोनों की जरूरत है। फिलहाल भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया न देकर दोनों देशों को साधने का प्रयास किया है।
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